टोंक का इतिहास: राजस्थान का लखनऊ, आदाब का गुलशन, रोमेंटिक कवि अख्तर शीरानी की नगरी, मीठे खरबूजे का चमन, हिन्दु मुस्लिम एकता का मस्कन, नमदों का शहर, नवाबों की नगरी महाभारत काल में टोंक क्षेत्र ‘सम्वादलक्ष्य’ के नाम से जाना जाता था। मौर्यकाल में यह उनके अधीन था। उसके बाद यह क्षेत्र ‘मालव गणराज्य’ का भाग हो गया। प्राचीन अभिलेख के अनुसार सम्राट अकबर के शासनकाल में जयपुर रियासत के राजा मानसिंह ने टोरी और टोकरा परगना को अपने अधिकार में ले लिया था। (टोंक का इतिहास)
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राजा मानसिंह ने भोला नाम के ब्राह्मण को टोकरा के 12 गाँव भूमि के रूप में स्वीकृत किए जिसने इन ग्रामों के समूह को मिलाकर ‘टोंक’ का नामकरण किया। यह रसिया की पहाड़ी की तलहटी में बसा हुआ है। टोंक जिला राजस्थान के उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित है। इसके उत्तर में जयपुर, पूर्व में सवाई माधोपुर, दक्षिण में कोटा, बूँदी तथा भीलवाड़ा व पश्चिम में अजमेर जिला स्थित है। सन् 1806 में अमीर खाँ पिण्डारी ने इसे मराठा सरदार बलवंतराव होल्कर से जीता, परन्तु होल्कर ने यह भू-भाग अँग्रेजों को सौंप दिया।
अँग्रेज सरकार ने मराठा सरदार जसवन्त होल्कर से प्राप्त टोंक का क्षेत्र सन् 1817 की संधि के तहत् अमीर खाँ पिण्डारी को सौंप दिया, जो वस्तुत: उसी के अधिकार में था। तब टोंक मुस्लिम रियासत की स्थापना हुई, जो राज्य की एक मात्र मुस्लिम रियासत थी। यह अंग्रेजों द्वारा गठित राजस्थान की पहली रियासत थी। टोंक ‘ नवाबों की नगरी’ के नाम से विख्यात है। 25 मार्च, 1948 को इसका राजस्थान संघ में विलय कर दिया गया, उस समय इसके शासक नवाब मोहम्मदक्षेत्रफल इस्माइल खान थे।(टोंक का इतिहास)
- टोंक जिला उत्तर में जयपुर, पूर्व में सवाईमाधोपुर, दक्षिण में बूंदी व भीलवाड़ा तथा पश्चिम में अजमेर जिले से घिरा हुआ है।
- बनास नदी टोंक जिले में बहने वाली सबसे बड़ी नदी है। इस नदी पर ही बीसलपुर बाँध बना हुआ है। यह टोंक जिले की सबसे बड़ी जल परियोजना है।(टोंक का इतिहास)
- टोरडी सागर बाँध, गलवा बाँध, माशी बाँध टोंक जिले के अन्य बाँध है।
- टोंक बीड़ी व नमदों के लिए प्रसिद्ध हैं। यह जिला चमड़ा उद्योग में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखता है।
- टोडारायसिंह तहसील का मेहरकला गाँव चटाई व टोकरी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। इस जिले में चक्की के पाट व सिलबट्ट्टों का निर्माण भी किया जाता है।
- टोंक के स्वादिष्ट खरबूजे व तरबूज पूरे देश में प्रसिद्ध है।
- चारबैत गायन शैली टोंक की विशिष्ट लोक गायन शैली है।
टोंक का इतिहास प्रमुख मेले व त्यौहार
मेला | स्थान | दिन |
बीसलपुर मेला | बीसलपुर | वैशाखी पूर्णिमा |
डिग्गी कल्याणजी का मेला | डिग्गी मालपुरा | श्रावणी अमावस्या,भाद्रपद शुक्ला एकादशी व वैशाख मास की पूर्णिमा |
पीपलू मेला | – | ज्येष्ठ अमावस्या |
पुलानी एकादशी | डिग्गी | भादवा ग्यारस |
देवनारायण मेला | देवधाम,जोधपुरिया | भाद्रपद षष्ठी व माघ माह |
टोंक का इतिहास प्रमुख मंदिर
कल्याणजी का मंदिर, डिग्गी मालपुरा
कलका निर्माण मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के प्रमुख मंदिर इन्वा ने करवाया हुआ । यहाँ विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा है। मुस्लिम इसे करते हैं पीर के नाम से पुकारते हैं। यहाँ श्रद्धालु सा युक्यकाल में राजा किराया ने बडवत लगाते हुए आते हैं। डिगीपुरी के कल्याणजी को स्मरण करते हुए यह लोकगीत गाते हैं- ‘म्हारा डिग्गी पुरात केवर मंदिर (जयपुर) ने बत बाजा।’ यहाँ श्रावणी अमावस्या (हरियाली अमावस्या) को विशाल मेला भरता है। इसके अलावा यहाँ वशीपुरी कृष्णमता, आते को जमा, पाटोत्सव, जलझूलनी एकादशी, अन्नकूट आदि को भी मेले भरते है। श्रावण व भाद्रपद माह में यात्री पदयात्रा करते हुए यहाँ पहुँचते हैं।(टोंक का इतिहास)
जोधपुरिया देवधाम
टोंक जिले की औद्योगिक नगरी निवाई में माशी बोबड़ा पहरपुरा के निकट देवनारायण जी का एक अति प्राचीन, पौराणिक तीर्थस्थल- जोधपुरिया देवधाम के नाम से सुविख्यात है। यहाँ भाद्रपद व माघ माह में मेला भरता है। 7 सितम्बर, 2011 को देवनारायण जी पर 5 रु. का डाक टिकट जारी किया गया।
जामा मस्जिद, बैंक (शाही मस्जिद)
टोंक की ऐतिहासिक जामा मस्जिद का निर्माण टोंक राज्य के संस्थापक नवाब अमीर खाँ पिंडारी ने शुरु कराया जिसे उसके पुत्र नवाब वजीरुद्दौला ने पूरा किया। इसमें सोने की चित्रकारी का काम नवाब मोहम्मद इब्राहिम खाँ के समय करवाया गया।
रामद्वारा सोड़ा
टोंक जिले के सोड़ा ग्राम में स्थित यह रामस्नेही सम्प्रदाय का एक तीर्थ धाम है।
गोकर्णेश्वर
टोंक जिले के बीसलदेव ग्राम में गोकर्णेश्वर (बीसलदेव) महादेव का प्राचीन मंदिर बनास नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर विग्रहराज चतुर्थ ने बनवाया।
अन्य मंदिर
कंकाली मंदिर, तेलियों का मंदिर, यज्ञ के बालाजी का मंदिर, अन्नपूर्णा मंदिर आदि।
प्रमुख दर्शनीय स्थल
सुनहरी कोठी
टोंक की सुनहरी कोठी का निर्माण सन् 1824 में नवाब अमीर खाँ द्वारा प्रारम्भ किया गया जो 1834 ई. में टोंक के नवाब वजीरुद्दौला खाँ के समय पूर्ण हुआ। यह शीश महल के नाम से जानी जाती थी। इस कोठी को टोंक की स्वर्णिम हवेली कहा जाता है। दो मंजिला कोठी है। इसकी दूसरी मंजिल नवाब इब्राहीम अली खाँ ने 1870 शारा महल के नाम से जाना जाता था। इस काठाका में बनवाई। इस कोठी में स्वर्ण की नक्काशी व चित्रकारी का कार्य नवाब इब्राहीम अली खाँ ने करवाया, तभी से यह सुनहरी कोठी कहलाती है। अतः सुनहरी कोठी का निर्माण कर्ता इब्राहीम अली खाँ को ही मानते हैं।(टोंक का इतिहास)
मौलाना अबुल कलाम आजाद अरबी-फारसी शोध संस्थान
प्रारम्भ में सैयदिया कुतुब खान के नाम से स्थापित इस संस्थान में अरबी एवं फारसी के हजारों पुरातात्विक एवं महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक परसी ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ एवं पुस्तकें संरक्षित हैं। 1978 में स्थापित इस संस्थान को कसरे इलम भी कहा जाता है। बाद में इस संस्थान का नाम मौलाना अब्दुल कलाम आजाद अरबी-फारसी शोध संस्थान कर दिया गया। (टोंक का इतिहास)
टोडारायसिंह
यहाँ बुधसागर सरोवर व सतलोज सरोवर स्थित है। बुध सागर सरोवर बूँदी नरेश बुधसिंह के नाम तथा सतलोज सरोवर का नामकरण सोलंकी शासक राव सातल के नाम पर हुआ।
मुबारक महल
इसका प्रारंभिक नाम ‘जरगिनार’ था। टोंक में सन् 1824 में निर्मित्त कराये गये मुबारक महल में इंदुलजुहा पर ऊँट की कुर्बानी दी जाती है। रियासत टोंक के पहले शासक नवाब अमीर खाँ पिण्डारी (अमीरुद्दौला) ने 1817 में टोंक रियासत की स्थापना के बाद ऊँट की कुर्बानी शुरु की थी।
राजमहल
देवली से 12 किमी दूर इस स्थान पर बनास, खारी एवं डाई नदियों का त्रिवेणी संगम है।
पीपा की गुफा
टोडारायसिंह के पास ग्राम टोडा में स्थित इस गुफा में गागरोन के संत पीपा जी ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में तपस्या की थी।
लाला पठान दुर्ग
टोडारायसिंह में स्थित है।
सरडा रानी की बावड़ी
वड़ी टोडारायसिंह में स्थित कलात्मक बावड़ी।
जलन्धर नाथ
निवाई कस्बे में पहाड़ी पर स्थित नाथ सम्प्रदाय का प्राचीन स्थल जहाँ जालन्धर नाथ की गुफा भी है।
माण्डकला
देवली तहसील में स्थित यह स्थल माण्डव ऋषि की तपोस्थली थी। यहाँ पवित्र जलाशय है। इसका महत्व ‘ पुष्कर’ के समान ही है। यहाँ मुचकुन्देश्वर महादेव का मंदिर है।
हाथी भाटा
टोंक जिले में टोंक-सवाई माधोपुर मार्ग पर स्थित गगनचुम्बी दुर्ग।टोंक के गुमानपुरा गाँव में स्थित, जिसमें एक चट्टान पर विशाल पत्थर को उत्कीर्ण कर हाथी बनाया गया है, जो जीवित हाथी की तरह दौड़ता हुआ प्रतीत होता है। इस हाथी की मूर्ति को रामनाथ सिलावट ने तैयार किया।(टोंक का इतिहास)
हड़ा रानी की बावडी
टोडारायसिंह में निर्मित हाड़ा रानी की बावड़ी जल संरक्षण और स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। इस बावड़ी पर बनी हुई सीढ़ियाँ आभानेरी की चाँद बावड़ी की तरह सुन्दर व आकर्षक हैं। (टोंक का इतिहास)
वनस्थली विद्यापीठ
1935 में निवाई में पंडित हीरालाल शास्त्री द्वारा ‘शांता बाई शिक्षा कुटीर’ के रूप में स्थापित। यह आगे चलकर वनस्थली विद्यापीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
सुखपुराती
इस स्थल पर गुप्त शासक समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासन काल के सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं।
अन्य स्थल
मोती सागर बाँध। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद अरबी फारसी शोध संस्थान ।
महत्त्वपूर्ण तथ्य
- निवाई नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र है। यहाँ पहाड़ी पर जलंधरनाथ का प्राचीन स्थान है। जलंधरनाथ जी के स्थान के नीचे पहाड़ी की तलहटी में बालाजी का मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से उत्कृष्ट है। निवाई में दामोदर जी का मंदिर और उसके पार्श्व में स्थित कुमुदिनी कुंड रमणीक स्थान है। यहाँ खारी बावड़ी व फूटी बावड़ी मुख्य बावड़ियाँ है।
- निवाई में मायला कुंड के निकट 12 खम्भों की कलात्मक छतरी है। इसमें उत्कीर्ण शिलालेख के अनुयार यह कान्हा नरूका की छतरी है।
- भंडग जी की गुफा : निवाई व चाँदसेन के पहाड़ों के मध्य भंडग जी की गुफा है। कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहाँ भृगु ऋषि ने तपस्या की थी। (टोंक का इतिहास)
- निवाई में स्थित झिलाय वाले बाग में संग्रामसिंह झिलाय की कलात्मक छतरी बनी हुई है।
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निष्कर्ष:
आज की इस पोस्ट के माध्यम से हमारी टीम ने टोंक का इतिहास की विस्तार से व्याख्या की है, साथ ही टोंक का इतिहास के प्रमुख पर्यटन व दर्शनीय स्थल का भी वर्णन किया है।